ढहते - गिरते खंडहर देखे |
हरे -भरे थे खेत जहाँ पर,
आज वहाँ पर बंजर देखे |
प्यासी नदिया, ठंडी गर्मी,
सूखे हुए समंदर देखे |
अपनों पर ही वार करें जो,
ऐसे - ऐसे खंज़र देखे |
रिश्तों के सागर के तट पर,
यादों के कुछ कंकर देखे |
क्षणभर में जो दुनिया बदलें,
'मधुप' ने ऐसे मंतर देखे |
----- डा० अशोक मधुप
(गीतकार-ग़ज़लकार-अभिनेता एवं निर्देशक)
बहुत ही खुबसुरत रचना है कई पंक्तियाँ मन को छू जाती है ,आखिरी दो पंक्तियाँ तो कमाल है ....पहली बार ब्लॉग पर आना हुआ,ख़ुशी हुई इतनी प्यारी रचना पढ़ कर......
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