गंधहीन जीवन है मेरा, तुम छू लो चन्दन बन जाऊं |
तुम कंचन, मैं निपट अकिंचन,
जैसे हो माटी का ढेला |
दास तुम्हारा वैभव, पर मैं
भरी भीड़ में खड़ा अकेला |
पारसमणि सी देह तुम्हारी, तुम छू लो कुंदन बन जाऊं |
मीलों पता नहीं मंजिल का,
पीड़ा मेरे संग अकेली |
सुन्दरता तेरी चेरी है,
खुशियाँ तेरी सखी सहेली |
करो कभी श्रृंगार अगर तो, मैं तेरा दर्पण बन जाऊं |
पनघट प्यासा, तन-मन प्यासा,
सारा जीवन ही प्यासा है |
कोई अभिलाषा है ऐसी,
तो यह केवल अभिलाषा है |
तुम यदि सावन बनकर बरसो, तो मैं वृन्दावन बन जाऊं |
जीवन अपना भी सराय सा,
है यह एक मुसाफिरखाना |
साँसों की इस डगर पे किसको,
पता भला कब आना जाना |
तुम यदि साथ निभाओ तो फिर, मैं भी एक रतन बन जाऊं |
---- डा० अशोक मधुप
Bahut Sundar rachna.
ReplyDeleteपनघट प्यासा, तन-मन प्यासा,
सारा जीवन ही प्यासा है |
कोई अभिलाषा है ऐसी,
तो यह केवल अभिलाषा है |
तुम यदि सावन बनकर बरसो, तो मै वृन्दावन बन जाऊं ||
Hriday ke ander gahraaiyon me pahunchne waali panktiyaan hain.
My dear Deepak! You liked my Poem. Thank you very much.
ReplyDeletewaah! kya baat hai,bahut khub rachna hai ye bhi....
ReplyDelete